कमलेश्वरजी मेरे दोस्त नहीं थे, लेकिन दोस्त जैसे थे. वह भाई नहीं थे लेकिन भाई जैसे थे. वह सीनियर थे लेकिन हमसफ़र जैसे थे.
जब मैं बम्बई में 1960-62 के दरमियान ग्वालियर से आया, उस समय की बम्बई आज की तरह खाली-खाली नहीं थी.
हिंदी, उर्दू साहित्यकारों से भरी-पूरी थी.
धर्मवीर भारती थे, राजेंद्र सिंह बेदी थे, इस्मत चुगताई थीं, अली सरदार जाफरी थे, साहिर लुधियानवी थे और इन सबके साथ और भी बहुत से थे.
वह समय मेरे स्ट्रगल का था. जब ग्वालियर में घर से बेघर हो गया तो कई स्थानों से भटकता हुआ, बम्बई पहुँचा. बम्बई में मुझे घर से ज़्यादा रोटी की ज़रूरत थी, जिन हाथों में रोटी नज़र आती थी मैं उधर मुड़ जाता था.
ये हाथ कभी हिंदी-उर्दू ब्लिट्ज में दिखाई देते थे, कभी टाइम्स ऑफ इंडिया में तो कभी धर्मयुग में संपादकीय केबिन में होते थे तो कभी उसी इमारत में सारिका के कार्यालय में चलते-फिरते थे.
उन दिनों सुरेंद्र प्रकाश भी दिल्ली से जमुना नदी का ख़त समुंदर के नाम लेकर इधर-उधर भटक रहे थे. वह उर्दू के कथाकार थे और मेरी तरह बेकार थे.
उनकी और मेरी बेकारी अक्सर एक जैसे ठिकानों में आती जाती थी. बार-बार की मुलाक़ातें कभी-कभी साथ-साथ चलकर भी रोटी की तलाश करती थीं. रोटी की इस मुसलसल तलाश ने सारे कुर्सीधारी साहित्यकारों को बदमाश बना दिया था.
हमें लगता था उनका रहन-सहन, चाल-चलन सब धन-फन है. सारे स्थापित साहित्यकार हमारी तीखी आलोचना के शिकार थे. इस आलोचना में नई-नई गालियाँ भी शामिल होती थीं.
एक बार हम दोनों वीटी (जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल है) स्टेशन से बाहर निकलकर टाइम्स की बिल्डिंग की तरफ जा रहे थे. हम दोनों डिवाइडर पर खड़े ट्रैफिक के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक पूरी गाली को बीच में रोकते हुए सुरेंद्र प्रकाश ने मेरी तरफ मुड़ते हुए कहा, "देख हम जहाँ जा रहे हैं वहाँ के हाथों में रोटियाँ हैं और हमारे मुँह में गालियाँ हैं. कहीं ऐसा न हो, मुँह की गालियाँ चेहरो पर नज़र आने लगें और जिन्हें देखकर क़रीब आती रोटियाँ दूर जाने लगें."
बात माकूल थी. सुरेंद्र के पास कहानी थी और मेरे बैग में कुछ कविताएँ और एक अरबी कहानी का अनुवाद था. टाइम्स ऑफ इंडिया की इमारत की तीसरी मंजिल में हमारी दो ही मंजिलें थी. धर्मयुग में भारती जी की केबिन और सारिका के दफ़्तर में कमलेश्वर का कमरा.
समय लंच का था. भारतीजी अपनी केबिन में ही अपना लंच मंगवाते थे. लंच के बाद थोड़ा आराम फ़रमाते थे उसके बाद अपने काम में लग जाते थे. भारती निर्धारित समय पर ही मिल पाते थे. हम पाँच-सात मिनट लेट हो गए थे. इसलिए दूसरी ओर मुड़ गए.
बड़ा आदमी
कमलेश्वर अपने कमरे से निकल ही रहे थे. वो भारतीजी की तरह वह लंच अकेले नहीं खाते थे. हँसते-हँसाते, ठहाके लगाते सबके संग इसका आनंद उठाते थे. इत्तफाक़ से उनके बाहर निकलने और हमारे उनके सामने आने का समय एक ही था. हमें देखते ही 'आओ निदा भाई-सुरेंद्र भाई' के जुमलों से पहले हमारा स्वागत किया और फिर कंधों पर हाथ रख दिया (छोटा हो या बड़ा वह सबको ‘भाई’ ही कहते थे). और कहा, "आओ कैंटिन चलते हैं वहीं बैठकर थोड़ा खाएँगे थोड़ा बतियाएंगे"
कमलेश्वर के शब्दों की अदायगी में उनकी आवाज़ के साथ उनकी आँखे भी शरीक रहती थीं. इस शिरकत में होठों से बड़ी उनकी विशेष मुस्कान की आदत भी रहती थी. जो किसी भी अजनबियत को मानूसियत में बदल देती थी. उनके इसी अंदाज़ में इनकी लोकप्रियता का राज़ भी पोशीदा था.
कैंटीन में उस समय कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया, सुदीप के साथ और भी कई लोग खा-पी रहे थे.
वहाँ पहुँच कर देखा कि सिर्फ हम ही नहीं सब उनके भाई थे. सब दोस्त थे और सारे जूनियर उनके हमसफ़र थे...कमलेश्वर बड़े परिवार के आदमी थे.
जिगर मुरादाबादी ने एक जगह लिखा है, "अच्छा शायर बनने के लिए अच्छा आदमी होना ज़रूरी है."
इसी ज़रूरत को उन्होंने अपने आचरण में ढाल लिया था. जिगर साहब की यही कसौटी कमलेश्वर जी की पहचान कराती है.
कमलेश्वर कोई सूफी संत तो नहीं थे लेकिन इलाहाबाद से बम्बई की लंबी यात्रा के उतार-चढ़ाव ने उन्हें चेहरों से दिलों को पढ़ने की दृष्टि ज़रूर दी थी.
उन्हें अपनी भूख के साथ मेरी और सुरेंद्र प्रकाश की खाली पेटों की भी ख़बर थी. इसलिए उन्होंने एक साथ तीन भोजन मंगवाए एक अपने लिए और दो हमारे लिए. और फिर हमारी औपचारिकता को सहज करने के लिए मुस्कुराते हुए पूछा, "निदा भाई कुछ सारिका के लिए भी लाए हो या खाली हाथ आए हो?"
मैंने फ़ौरन बैग से एक अरबी कहानी का अनुवाद निकाल कर उन्हें दिया. कमलेश्वर खाना छोड़कर कहानी को पढ़ने लगे और एक ही पैराग्राफ देखकर उसे स्वीकृत किया और हाथ का निवाला मुँह में रखते हुए बोले निदा भाई तुमने कमाल कर दिया. हम तो समझते थे अरब में सिर्फ नमाज़ ही पढ़ी जाती है वहाँ तो कहानी भी लिखी जाती है और फिर मुस्कुराते हुए सुरेंद्र की थाली से अचार को अंगुली से छूते हुए कहा, "सुरेंद्र भाई, निदा ने तो अपना चमत्कार दिखा दिया अब आप बताएँ आप की झोली में मीर के बहत्तर नश्तरों में से कौन सा नश्तर छुपा है?"
फ्री के भोजन के साथ सुरेंद्र की कहानी भी मिलने वाले चैक में परिवर्तित हो गई. यह थे कमलेश्वर और उनका जादू.
वह जैसा लिखते थे वैसे दिखते भी थे...मैंने बहुत बाद में कबीर के छंद में एक ग़ज़ल लिखी थी उसके दो शेरों में कमलेश्वर की जैसी ही यादें छिपी हैं,
यह दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिखारी क्यावह हर दीदार में ज़रदार है, गोटा किनारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसकोजो चोटी और दाढ़ी तक रहे, वह दीनदारी क्या
वह जब सारिका से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए तो उनसे मुलाक़ातों की संख्या बढ़ने लगी.
इंडस्ट्री में उन्होंने इश्क भी किया. शराब भी पी. महफिलों में शिरकत भी की. लेकिन उनके मिलने जुलने के तरीक़ों और ठहाके लगाने के सलीकों में कोई फर्क नहीं महसूस हुआ.
न उनका लिबास बदला और न इंसानियत पर उनका वह विश्वास बदला जो 'कितने पाकिस्तान' के एहसास में शामिल है.
इंसानियत से पहचान
कमलेश्वर ज़िंदगी से भरे पूरे लेखक थे. ज़िंदगी की उनकी परिभाषा ने आदमी को उसकी इंसानियत से जाना, किसी को उसकी भाषा, क्षेत्र या धर्म से नहीं पहचाना.
कमलेश्वर का मिज़ाज कभी नहीं बदला
उनकी खुशियाँ भले ही सीमित हों लेकिन उनके दुख दूर-दूर तक फैले हुए समाज की भाँति असीमित थे. वह बड़े दुख के बड़े लेखक थे. वह बम्बई, दिल्ली या और कहीं, जहाँ भी मिले उसी रूप में मिले जैसे वह सारिका के दफ़्तर के कैंटीन में मिले थे.
उनसे आख़िरी मुलाक़ात दिल्ली में किसी गोष्ठी में हुई थी. मुझे तब शेर सुनाने के लिए बुलाया गया तो हाथ में रंगीन ग्लास लिए, एक जानी-पहचानी आवाज़ ने मुझसे एक नज़्म सुनाने का अनुरोध किया, आवाज़ कमलेश्वरजी की थी और मेरी नज़्म उस समय की थी जब हिंदो-पाक में युद्ध हो रहा था और मेरी माँ कराची में बीमार थीं. मुझे वीज़ा नहीं मिला और मैंने नज़्म कही थी...
कराची एक माँ हैबम्बई बिछुड़ा हुआ बेटायह रिश्ता प्यार व पाकीज़ा रिश्ता हैजिसे अब तक न कोई तोड़ पाया हैन कोई तोड़ सकता हैगलत है रेडियो, झूठी है सब अख़बार की ख़बरेंन मेरी माँ कभी तलवार खाने रन में आई हैन मैंने अपनी माँ के सामने बंदूक उठाई हैयह कैसा शोरो हंगामा हैयह किस की लड़ाई है
कमलेश्वर अब नहीं हैं. लेकिन जब भी कभी किसी महफ़िल में कोई इस नज़्म को सुनाने को कहता है तो मेरे सामने कमलेश्वर का चेहरा आ जाता है, मुस्कुराता हुआ....
जब मैं बम्बई में 1960-62 के दरमियान ग्वालियर से आया, उस समय की बम्बई आज की तरह खाली-खाली नहीं थी.
हिंदी, उर्दू साहित्यकारों से भरी-पूरी थी.
धर्मवीर भारती थे, राजेंद्र सिंह बेदी थे, इस्मत चुगताई थीं, अली सरदार जाफरी थे, साहिर लुधियानवी थे और इन सबके साथ और भी बहुत से थे.
वह समय मेरे स्ट्रगल का था. जब ग्वालियर में घर से बेघर हो गया तो कई स्थानों से भटकता हुआ, बम्बई पहुँचा. बम्बई में मुझे घर से ज़्यादा रोटी की ज़रूरत थी, जिन हाथों में रोटी नज़र आती थी मैं उधर मुड़ जाता था.
ये हाथ कभी हिंदी-उर्दू ब्लिट्ज में दिखाई देते थे, कभी टाइम्स ऑफ इंडिया में तो कभी धर्मयुग में संपादकीय केबिन में होते थे तो कभी उसी इमारत में सारिका के कार्यालय में चलते-फिरते थे.
उन दिनों सुरेंद्र प्रकाश भी दिल्ली से जमुना नदी का ख़त समुंदर के नाम लेकर इधर-उधर भटक रहे थे. वह उर्दू के कथाकार थे और मेरी तरह बेकार थे.
उनकी और मेरी बेकारी अक्सर एक जैसे ठिकानों में आती जाती थी. बार-बार की मुलाक़ातें कभी-कभी साथ-साथ चलकर भी रोटी की तलाश करती थीं. रोटी की इस मुसलसल तलाश ने सारे कुर्सीधारी साहित्यकारों को बदमाश बना दिया था.
हमें लगता था उनका रहन-सहन, चाल-चलन सब धन-फन है. सारे स्थापित साहित्यकार हमारी तीखी आलोचना के शिकार थे. इस आलोचना में नई-नई गालियाँ भी शामिल होती थीं.
एक बार हम दोनों वीटी (जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल है) स्टेशन से बाहर निकलकर टाइम्स की बिल्डिंग की तरफ जा रहे थे. हम दोनों डिवाइडर पर खड़े ट्रैफिक के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक पूरी गाली को बीच में रोकते हुए सुरेंद्र प्रकाश ने मेरी तरफ मुड़ते हुए कहा, "देख हम जहाँ जा रहे हैं वहाँ के हाथों में रोटियाँ हैं और हमारे मुँह में गालियाँ हैं. कहीं ऐसा न हो, मुँह की गालियाँ चेहरो पर नज़र आने लगें और जिन्हें देखकर क़रीब आती रोटियाँ दूर जाने लगें."
बात माकूल थी. सुरेंद्र के पास कहानी थी और मेरे बैग में कुछ कविताएँ और एक अरबी कहानी का अनुवाद था. टाइम्स ऑफ इंडिया की इमारत की तीसरी मंजिल में हमारी दो ही मंजिलें थी. धर्मयुग में भारती जी की केबिन और सारिका के दफ़्तर में कमलेश्वर का कमरा.
समय लंच का था. भारतीजी अपनी केबिन में ही अपना लंच मंगवाते थे. लंच के बाद थोड़ा आराम फ़रमाते थे उसके बाद अपने काम में लग जाते थे. भारती निर्धारित समय पर ही मिल पाते थे. हम पाँच-सात मिनट लेट हो गए थे. इसलिए दूसरी ओर मुड़ गए.
बड़ा आदमी
कमलेश्वर अपने कमरे से निकल ही रहे थे. वो भारतीजी की तरह वह लंच अकेले नहीं खाते थे. हँसते-हँसाते, ठहाके लगाते सबके संग इसका आनंद उठाते थे. इत्तफाक़ से उनके बाहर निकलने और हमारे उनके सामने आने का समय एक ही था. हमें देखते ही 'आओ निदा भाई-सुरेंद्र भाई' के जुमलों से पहले हमारा स्वागत किया और फिर कंधों पर हाथ रख दिया (छोटा हो या बड़ा वह सबको ‘भाई’ ही कहते थे). और कहा, "आओ कैंटिन चलते हैं वहीं बैठकर थोड़ा खाएँगे थोड़ा बतियाएंगे"
कमलेश्वर के शब्दों की अदायगी में उनकी आवाज़ के साथ उनकी आँखे भी शरीक रहती थीं. इस शिरकत में होठों से बड़ी उनकी विशेष मुस्कान की आदत भी रहती थी. जो किसी भी अजनबियत को मानूसियत में बदल देती थी. उनके इसी अंदाज़ में इनकी लोकप्रियता का राज़ भी पोशीदा था.
कैंटीन में उस समय कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया, सुदीप के साथ और भी कई लोग खा-पी रहे थे.
वहाँ पहुँच कर देखा कि सिर्फ हम ही नहीं सब उनके भाई थे. सब दोस्त थे और सारे जूनियर उनके हमसफ़र थे...कमलेश्वर बड़े परिवार के आदमी थे.
जिगर मुरादाबादी ने एक जगह लिखा है, "अच्छा शायर बनने के लिए अच्छा आदमी होना ज़रूरी है."
इसी ज़रूरत को उन्होंने अपने आचरण में ढाल लिया था. जिगर साहब की यही कसौटी कमलेश्वर जी की पहचान कराती है.
कमलेश्वर कोई सूफी संत तो नहीं थे लेकिन इलाहाबाद से बम्बई की लंबी यात्रा के उतार-चढ़ाव ने उन्हें चेहरों से दिलों को पढ़ने की दृष्टि ज़रूर दी थी.
उन्हें अपनी भूख के साथ मेरी और सुरेंद्र प्रकाश की खाली पेटों की भी ख़बर थी. इसलिए उन्होंने एक साथ तीन भोजन मंगवाए एक अपने लिए और दो हमारे लिए. और फिर हमारी औपचारिकता को सहज करने के लिए मुस्कुराते हुए पूछा, "निदा भाई कुछ सारिका के लिए भी लाए हो या खाली हाथ आए हो?"
मैंने फ़ौरन बैग से एक अरबी कहानी का अनुवाद निकाल कर उन्हें दिया. कमलेश्वर खाना छोड़कर कहानी को पढ़ने लगे और एक ही पैराग्राफ देखकर उसे स्वीकृत किया और हाथ का निवाला मुँह में रखते हुए बोले निदा भाई तुमने कमाल कर दिया. हम तो समझते थे अरब में सिर्फ नमाज़ ही पढ़ी जाती है वहाँ तो कहानी भी लिखी जाती है और फिर मुस्कुराते हुए सुरेंद्र की थाली से अचार को अंगुली से छूते हुए कहा, "सुरेंद्र भाई, निदा ने तो अपना चमत्कार दिखा दिया अब आप बताएँ आप की झोली में मीर के बहत्तर नश्तरों में से कौन सा नश्तर छुपा है?"
फ्री के भोजन के साथ सुरेंद्र की कहानी भी मिलने वाले चैक में परिवर्तित हो गई. यह थे कमलेश्वर और उनका जादू.
वह जैसा लिखते थे वैसे दिखते भी थे...मैंने बहुत बाद में कबीर के छंद में एक ग़ज़ल लिखी थी उसके दो शेरों में कमलेश्वर की जैसी ही यादें छिपी हैं,
यह दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिखारी क्यावह हर दीदार में ज़रदार है, गोटा किनारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसकोजो चोटी और दाढ़ी तक रहे, वह दीनदारी क्या
वह जब सारिका से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए तो उनसे मुलाक़ातों की संख्या बढ़ने लगी.
इंडस्ट्री में उन्होंने इश्क भी किया. शराब भी पी. महफिलों में शिरकत भी की. लेकिन उनके मिलने जुलने के तरीक़ों और ठहाके लगाने के सलीकों में कोई फर्क नहीं महसूस हुआ.
न उनका लिबास बदला और न इंसानियत पर उनका वह विश्वास बदला जो 'कितने पाकिस्तान' के एहसास में शामिल है.
इंसानियत से पहचान
कमलेश्वर ज़िंदगी से भरे पूरे लेखक थे. ज़िंदगी की उनकी परिभाषा ने आदमी को उसकी इंसानियत से जाना, किसी को उसकी भाषा, क्षेत्र या धर्म से नहीं पहचाना.
कमलेश्वर का मिज़ाज कभी नहीं बदला
उनकी खुशियाँ भले ही सीमित हों लेकिन उनके दुख दूर-दूर तक फैले हुए समाज की भाँति असीमित थे. वह बड़े दुख के बड़े लेखक थे. वह बम्बई, दिल्ली या और कहीं, जहाँ भी मिले उसी रूप में मिले जैसे वह सारिका के दफ़्तर के कैंटीन में मिले थे.
उनसे आख़िरी मुलाक़ात दिल्ली में किसी गोष्ठी में हुई थी. मुझे तब शेर सुनाने के लिए बुलाया गया तो हाथ में रंगीन ग्लास लिए, एक जानी-पहचानी आवाज़ ने मुझसे एक नज़्म सुनाने का अनुरोध किया, आवाज़ कमलेश्वरजी की थी और मेरी नज़्म उस समय की थी जब हिंदो-पाक में युद्ध हो रहा था और मेरी माँ कराची में बीमार थीं. मुझे वीज़ा नहीं मिला और मैंने नज़्म कही थी...
कराची एक माँ हैबम्बई बिछुड़ा हुआ बेटायह रिश्ता प्यार व पाकीज़ा रिश्ता हैजिसे अब तक न कोई तोड़ पाया हैन कोई तोड़ सकता हैगलत है रेडियो, झूठी है सब अख़बार की ख़बरेंन मेरी माँ कभी तलवार खाने रन में आई हैन मैंने अपनी माँ के सामने बंदूक उठाई हैयह कैसा शोरो हंगामा हैयह किस की लड़ाई है
कमलेश्वर अब नहीं हैं. लेकिन जब भी कभी किसी महफ़िल में कोई इस नज़्म को सुनाने को कहता है तो मेरे सामने कमलेश्वर का चेहरा आ जाता है, मुस्कुराता हुआ....