समय हो गया

Tuesday, December 2, 2008

अब डरने लगा हूँ

पहले डरता नही था पर अब डरने लगा हूँ ,

रोज़ तिल तिल कर मरने लगा हूँ ,

रोज़ बस से आफिस जाता हूँ ,

इसलिए आस पास की चीज़ों पर ध्यान लगता हूँ

सीट के नीचे किसी बम की शंका से मन ग्रसित रहता है

कभी कोई लावारिस बैग भ्रमित करता है ।

ख़ुद से ज़्यादा परिवार की फ़िक्र करता हूँ

इसलिए हर बात मे उनका ज़िक्र करता हूँ

रोज़ अपने चैनल के लिए ख़बर करता हूँ

और किसी रोज़ ख़बर बनने से डरता हूँ

मैं एक आम हिन्दुस्तानी की तरहां रहता हूँ

इसलिए रोज़ तिल तिल कर मरता हूँ

हालात यही रहे तो किसी रोज़ मैं भी

किसी सर फिरे की गोली या बम का शिकार बन जाऊँगा

कुछ और न सही पर बूढे अम्मी अब्बू के

आंसुओं का सामान बन जाऊँगा।

इस तरह एक नही कई जिनदगियाँ तबाह हो जाएँगी

बहोत न सही पर थोडी ही

दहशतगर्दों की आरजुओं की गवाह हो जाएँगी ।

इसीलिए मैं अब डरने लगा हूँ

हर रोज़ तिल तिल कर मरने लगा हूँ ,तिल तिल कर मरने लगा हूँ ।

Wednesday, August 27, 2008

अहमद फ़राज़-'बुझ गया चिराग'


१४ जनवरी १९३१ को नव्शेरा पाकिस्तान मे एक बच्चे की विलादत हुई .इस बच्चे की सलाहियतों ने इसे आम से ख़ास बना दिया .इनके वालिद ने इनका नाम अहमद रखा जो आगे चल कर अहमद फ़राज़ के नाम से मशहूर हुए .आप ने पेशावर यूनिवर्सिटी से तालीम हासिल की .उर्दू और पर्शियन मे आपको महारत हासिल थी .आपकी शाएरी मे उस दौर के हालात का तफ्सेरा भी है और खुशनूदगी भी .अली सरदार जाफरी और फैज़ अहमद फैज़ जैसे शायेरों के साथ आपका नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है.२४ अगस्त २००८ को वाक़े अहमद फ़राज़ की वफ़ात अदबी माशरे के लिए ग़म का बाएस है ।


कठिन है राहगुज़र थोरी दूर साथ चलोबहुत करा है सफर थोडी दूर साथ चलो
(kaThin : difficult; raahguzar : path)
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है मैं जानता हूँ मगर थोडी दूर साथ चलो
नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नही बड़ा मज़ा हो अगर थोडी दूर साथ चलो
ये एक शब् की मुलाक़ात भी ग़नीमत हैकिस है कल की ख़बर , थोरी duur saath chalo
अभी तो जाग रहे हैं चिराघ राहों के अभी है दूर सहर थोडी दूर साथ चलो
(sahar : dawn)
तवाफे मंजिले जानां हमें भी करना है “फ़राज़ ” तुम भी agar थोडी दूर साथ चलो
tavaaf-e-manzil-e-jaanaaN : circumabulation of the house of beloved)
Ahmed Faraz

Saturday, May 31, 2008

सेक्स वायरस

तेज़ी से बदलते सामाजिक परिदृश्य मे जिस प्रकार से प्रत्येक वस्तु परिवर्तन शील है उसी प्रकार नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों मे भी परिवर्तन आया है सामाजिक दायरे मे उठने वाले प्रत्येक प्रश्न की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठने लगे हैं । गावों और छोटे शहरों की अपेचा बड़े शहरों मे बसने वाला समाज जिसकी जीवनशैली मे गतिशीलता है और जो तथ्यपरक दृष्टिकोण रखते हुए भी उन्मुक्त जीवन जीना चाहता है ,अपना हर लम्हा आनंद से भर देना चाहता है और इन सब मे भी हमारे समाज का युवा कहीं आगे है , पिछले दिनों शादी से पुर्व यौन संबंधों पर कराये गए सर्वेख्चन इस बात की ओर इशारा करते हैं की युवाओं मे सेक्स को लेकर जानकारी और उतेजना की विकास हुआ है , शारीरिक सुख भोगने की लालसा अधिक जागृत हुई है ।
'नेशनल इंस्तितुएत आफ हेल्थ एंड फैमिली वेल्फैयेर ' और राष्ट्रीय स्वस्थ मंत्रालय की रिपोर्ट को माने टू भारतीय yuva ब्रिगेड का १/३ अपनी यौन इक्छाओं की पूर्ति शादी से पूर्व ही कर लेता है ,सर्वेचन इस बात की ओर इशारा करते है की विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध और गर्भ निरोधक का इस्तेमाल सबसे अधिक स्कूल और कॉलेज के छात्र \छात्राओं मे युवा ,कामकाजी पुरूष ,महिलाऐं और १५ से २४ साल के उन लोगों मे बढ़ा है जो झोपड़ पट्टी में रहते है और इनमें दिल्ली और लखनु अन्य शहरों से आगे हैं ।
इन अध्यनों से जो तस्वीर उभर कर सामने आती है वह विभिन वर्गों मे भिन्न - भिन्न यौन सम्बन्धों की कहानी कहती है , कट्टर उत्तर भारतीय लोगों मे विवाह पूर्व सम्बन्ध 'जवान कामकाजी लोगों मे ३५ % ,स्कूल के छात्र /छात्राओं मे १७% है , बड़े शहरों मे लखनु ,दिल्ली से भी आगे है ।
३३०० लोगों पर किए गए सर्वेचन मे अधिकता उन लोगों की रही जिन्होंने यौन सुख १६ से १८ साल की उम्र मे प्राप्त कर लिया था । इस अध्यन से शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकला कि प्रथम बार यौन सम्बन्ध बनाने मे लड़कों कि औसत आयु १७.४ साल रही जबकि लड़कियों कि १८.२ साल । लक्चित समूह कि ६०% लोगों ने कहा कि वह सेक्स बहुत कम या कभी -कभी करते हैं इसी समूह के १/३ लोग ऐसे पाये गए जिन्हें असुरचित यौन सम्बन्धों के विषय मे जानकारी नही थी । ३% से ४% लोगों ने कई लोगों से अलग -अलग सम्बन्ध बनाए थे ।
इन अध्यन से कुछ रोचक तथ्य भी सामने आए ,लकचित वर्ग के ३०% लोगों [५४% पुरूष ,२०% महिलाऐं ] ने कहा 'हालांकि उन्होंने कभी विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध नही बनाए परन्तु उनके दोस्तों ने बनाए हैं । १८% पुरुषों ने स्वीकार किया कि उन्होंने किसी अनजान से या फिर देह व्यापार करने वाली महिलाओं से सम्बन्ध स्थापित किए केवल ०.२% युवा ऐसे रहे जिन्हें सेक्स करने के बाद गलती का एहसास हुआ ,५% युवाओं ने समलैंगिकता कि बात स्वीकार की ।
लकचित वर्ग के बहुत बड़े समूह ने स्वीकार कि 'लड़के और लड़कियों के एक दूसरे के करीब आने और मेल-जोल ने सेक्स सम्बन्धी विषय की जानकारी को रोचक और व्यापक बना दिया है और आपसी समझ को भी विकसित किया है । दिल्ली जैसे शहर मे महिलाओं के अपेचा पुरूष इस बार मे विश्वास करता है की चूमना ,एक दूसरे को समय देना ,डेट पर जाना युवा लोगों मे आम बार है ।

Friday, May 23, 2008

डर

· नवम्बर की वो शदीद सर्दी मुझे आज भी याद है जब सूर्य देवता के दर्शन हुए करीब १५ दिन बीत चुके थे कोहरा ऐसा की चंद कदम की दूरी पर रखी चीज़ भी सफेदी मे गुम हो जाए .स्कूलों को बंद करने के आदेश जारी किए जा चुके थे ,अलाव और रजाई को छोड़ना जंग पर जाने से कम न था .और मेरा दिल ये सोंच -सोंच कर बैठा जा रहा था कि आज मुझे बरेली से लखनओऊ की यात्रा करनी है और वो भी रात की ट्रेन से ,दिन के अपने तमाम काम निबटाने के बाद मैंने अपने दोस्तों अनीस और अतहर को फ़ोन लगाया ,ये दोनों भी साथ जा रहे थे ,लाखनाऊ मे हम साथ ही रहा करते है और कोचिंग मे दाखिला भी साथ ही लिया था .
ट्रेन 8:३० कि थी बरेली जंक्शन से ही बन कर चलने कि वजह से लेट होने कि सम्भावना कम ही थी फिर हमारा घर भी स्टेशन से 8-10 कम दूर था इसलिए हमे 7 बजे तक घर से निकल जाना था .दोस्तो के साथ सारा प्रोग्राम फिक्स करने के बाद मैंने अपना बैग पैक करना शुरू किया ,इधर अम्मी भी एक -एक चीज़ याद दिला कर रख्वाती जा रही थी ,घर का घी और आचार अलग से ख़ास ताकीद करके रख दिया गया था कि खाने मे कोताही मत करना सेहत का ख्याल रखना .
घड़ी ने 7 बजे का इशारा किया और अब्बू ने अम्मी को टोकना शुरू किया कि मुझे जल्दी निकल कर स्टेशन पहुच जाना चाहिए ,कहीं मेरी लेट लातिफी मे ट्रेन न छूट जाए .
घर से निकल कर कुछ दूर चलने पर ही ऑटो रिक्शा मिल जाता है लेकिन ये क्या आज एक भी रिक्शा नज़र नही आ रहा था ,कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मेरी धड़कने बढ़ने लगी और मे बेचैन होने लगा .घबराहट और बढ़ गई जब मैंने घड़ी पर निगाह की,सूइयाँ 7:45 का इशारा कर रही थी ,इसी वक्त दूर से कोई आता दिखाई दिया ,करीब आया टू मैंने झट से आगे बढ़ कर उसकी साइकिल का हेंडल थाम लिया ,वो बेचारा लड़खारा गया लेकिन मैंने सँभालते हुए एक ही साँस मे आपनी सारी व्यथा सुना डाली , किस्मत अच्छी थी वो भी स्टेशन के करीब मंदी तक जा रहा था . बिना इजाज़त लिए men उचक कर कारिएर पर सवार हो गया और उम्मीद भारी निगाहें उसके चेहरे पर गदा दी ,जैसे वो ही अब मेरा आखरी सहारा हो .साइकिल आगे बड़ी और साथ मे मेरी उम्मीद भी ,इतनी देर मे न जाने कितने बुरे ख्याल दिल मे आ चुके थे .
अल्लाह -अल्लाह करते हुए हम स्टेशन चौराहे पर पहुंचे ,मैंने घड़ी पर नज़र दौदै टू कलेजा मुह को आ गया । 8 बज्के 25 मिनट हो चुके थे और अभी स्टेशन आधे किलोमीटर दूर था मैंने आओ देखा न ताओ और लगी दी दौड़ स्टेशन की ओर और मांग डाली साडी मन्नतें ट्रेन पकड़ने के लिए .ठीक साधे आठ बजे मई स्टेशन पहुँच गया ,इधर अनीस और अतहर मेरे ऊपर अपना दांत पीस रहे थे ,वो टू अच्छा हुआ की अतहर ने टिकेट पहले से ही ले रखा था । इधर ट्रेन प्लात्फोर्म पर रेंग चुकी थी हम लोग दौड़ते हुए प्लात्फोर्म पर पहुंचे और कूद कर सामने वाले डिब्बे मे चढ़ गए ,बाहर चल रही हवाओं की सनसनाहट के अलावा और कोई आवाज़ उस डिब्बे मे नही थी ,कुछ देर बाद एहसास हुआ की हम लोग लगेज कोम्पर्त्मेंट मे चढ़ गए थे .
ट्रेन चल चुकी थी और रात के अंधेर मे किसी अगले स्टेशन पर उतर कर डिब्बा बदलने की हिम्मत हम मे से कोई नही कर पा रहा था मे आगे बढ़ कर जगह तलाशने लगा to मेरी टांग से कोई चीज़ टकराई और मुझे एहसास हुआ की नीचे कुछ पड़ा है , झुक कर देखा टू कुछ लोग बड़ी बेखबरी के साथ सो रहे थे ,पास की जगह खली थी हमने भी उनको बिना कोई तकलीफ दिए अपनी चादर बिछा दी और लेट गए ,पूरी तरह खुले दरवाज़े के दोनों तरफ़ बहती हवाएँ जैसे हमें अपनी बाँहों मे जकड़ने के लिए बेताब हओ रही थी और हम छोटे बचों की तरह पकड़ से आजाद होने के लिए अपनी ही बाँहों मे सिमटे चले जा रहे थे ,एक दूसरे का आलिंगन हमें गर्मी का हल्का एहसास करा रहा था ,और इस वक्त रिश्तों की गर्मी के एहसास ने ठंड के एहसास को भी कुछ देर के लिए ही सही पर पिघला ज़रूर दिया
हम सिमट कर लेट गए और कुछ ही देर मे हमें नींद ने आ घेरा ,देर रात जब मुझे तेज़ ठंड का एहसास हुआ to मेरी नींद टूट गई ,देखा to अनीस पूरा कम्बल अकेले ही लपेटे सो रहा था .कहिलियत ki वजह से मैंने भी उसे जगाया नही और अपने बघल मे सोये हुए शक्स की ही चादर मे पाऊँ दाल दिए ,वो भी शायद गहरी नींद मे था जो मना नही किया .मैंने लगभग दो घंटे की नींद और ली ,मेरी आँख करीब तीन बजे उस वक्त खुली जब हमारे डिब्बे मे हलचल शुरू हुई ,तोर्चों से पीली रौशनी बिखेरते हुए दो लोग डिब्बे के अन्दर दाखिल हुए और उनके पीछे करीब आठ दस लोग और भी ,एक शूर सुने दिया “उठाओ भाई उठाओ सभी लाशों को नीचे उतारो .”लाश शब्द सुनते ही मेरी नींद फक्ता हओ गई ,अब तक अतहर और अनीस भी जाग चुके थे .मामला समझ मे आता इससे पहले ही एक पुलिस वाले ने हमें बाहर निकलने का इशारा किया ,शदीद तेज़ ठंड मे हम बाहर खड़े थे और हमारे बदन se पसीने ऐसे छूट रहे थे जैसे झेथ की गर्मी के मौसम मे .अब तक हम समझ चुके थे जो लोग हमारे बघल मे सोते हुए से लग रहे थे वो डर असल उन लोगों की लाशें थी जो किसी स्टेशन पर हादसे का शिकार हओ गए थे .

Saturday, April 26, 2008

'तिब्बत' चीनी खिलौना

इस्तेमाल करो और भूल जाओ जी हाँ यही कहाँ जाता है चीनमे बने सस्ते उत्पाद के बारे मे , पहली नज़र मे मुतासिर करने वाली चीज़ ज्यादातर नज़र का धोका होती है ,क्या ये चीन के बरे मे सही नही है ?



गुलामी के दौर से गुज़रते हुए चीन ने पश्चिमी देशों से चाहे कुछ लिया हो या न लिया हो पर एक चीज़ जो उसने ग्रहण की वो है दोहन की मानसिकता .१९४९ के बाद कम्युनिस्ट क्रांति के प्रभावों का एशिया मे विस्तार और साम्राज्यवादी चीन की अवधारणा इसी दोहन की मानसिकता का परिणाम है ।



किसी भी देश की ताक़त का आधार उसका आर्थिक सम्रिधिकरण है और इसको बनाए रखने के लिए संसाधनों की निरंतर उप्लब्धता सुनिश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है इसलिए विकसित और अर्धविकसित देश प्राप्त संसाधनों का बेतहाशा दोहन कर रहे हैं और नए संसाधनों की खोज मे जुट गए हैं .कहना ग़लत न होगा कि साम्राज्यवादी चीन कि इसी बदनीयत का शिकार तिब्बत भी हो आर्मी के।



तिब्बत घुसने साथ हओ ,गया इस छेत्र की se दौर चीएँ ने नकेवल यहाँ प्राकृतिक संसाधनों दोहन करके चीन की taiwan . 1951 me china ki people

liberation army ke tibbet मे ghusne के saath ही शुरू ho gaya is chetra ki बदनसीबी का daur । cheeen ne na kewal yahan के prakritik sansadhno का dohan karke cheen ki मुख भूमि का विकास किया बल्कि सांस्कृतिक रूप से समृद्ध यहाँ के मूल निवासियों की जड़ों को भी खोदने का काम किया , बुध mathon को गिरा कर पांच सितारा होटलों का निर्माण किया गया है जिनका मालिकाना हक चीन के मूल निवासी हान जाती लोगों के पास है ,जबकि मूल तिब्बती gharibi और शोषण का shikaar हैं ।


चीन की राजधानी से लेकर तिब्बत मे लहसा तक रेलवे लीन बिछाना और दुर्गम चेत्रों तक अपनी पहुच बनाना चीन और बाकि दुनिया के लिए एक बड़ी उप्लाभ्दी हओ सकती है लेकिन ऐसा करने के पीछे तिब्बत के विकास से कहीं अधिक चीन के अपने व्यापारिक और सामरिक हित जुड़े हुए हैं।


पुँकृतिक रूप से समृद्ध तिब्बत विदेशी सैलानियों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र रहा है जिसमे चीन को बड़ी मात्र मे विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है ,इसलिए तिब्बत मे इन सैलानियों के आगमन को सुगम बनने और अपने नियंत्रण को और मज़बूत रखने की दृष्टि से ही इस रेल पटरी का निर्माण किया गया .किसी समय मे जिस प्रकार ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशो का दोहन और वहाँ के लोगों का शोषण किया था आज उसी प्रकार चीन अपने विकास की कीमत कमज़ोर राष्ट्रों से वसूल कर रहा है ।


केवल तिब्बत ही नही चीन ने अपनी उर्जा सम्बन्धी आव्शाक्ताओ को पूरा करने ,कच्चे तेल ,गैस और खनिज की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए,प्राकृतिक संसाधनों जैसे तेल ,गैस ,खनिज से समृद्ध कमज़ोर और ग्रह युद्ध के शिकार छोटे-छोटे अफ्रीकी देशों की असवेधानिक ताक़तों को खुल कर पैसा और हतियार उपलब्ध करवाए जिसके परिणाम स्वरूप इन राष्ट्रों के कमज़ोर निवासियों का बड़ी संख्या मे नरसंहार किया गया ,बचे हुए लोगों को विस्थापन का शिकार होना पड़ा । यू अन ओ की रिपोर्ट मे इस बात का खुलासा किया गया है की इन राष्ट्रों मे निवास करने वाली जातियाँ बड़े पैमाने पर नरसंहार,शोषण ,भुखमरी और कुपोषण का शिकार हुई है और इसका सबसे बड़ा कारन यहाँ की असंवैधानिक ताक़तों को चीन जैसे राष्ट्रों का समर्थन रहा है ।


चीन शुरू से एक साम्राज्यवादी देश रहा है जिसका एक मात्र लक्ष अपने छेत्र और ताक़त का vistaar करना है कीमत चाहे जो भी ho

खेल से खिलवाड़

मुझे क्रिकेट मे कैरियर बनाना है ।
बस बल्ला ही तो घुमाना है।
राष्ट्रीय खेल न सही पर इसी का ज़माना है ।
कौन सा मुझे ओलमपिक खेलने जाना है ।
वैसे भी हॉकी मे बड़ी मारा मारी है ।
पैसे देकर खेलने की आती बारी है ।
अच्छे खिलाड़ी मुफलिसी मे जीते हैं ।
और जोड़-तोड़ वाले मजे से घी पीते हैं ।
गिल को गिला नहीं खेल कहीं भी जाए ।
ऐसे हालत मे और किया भी क्या जाए ।
कोई ज्योतिकुमारण जब तक इसकी सेवा करेगा।
अपना राष्ट्रीय खेल यूही तिल-तिल मरेगा ।
फिर किसी और पर दोष मढ़ दिया जाएगा ।
कुछ को निकाल कर पल्ला झाड़ लिया जाएगा

Sunday, January 27, 2008

बड़े लोगों की बात


कमलेश्वरजी मेरे दोस्त नहीं थे, लेकिन दोस्त जैसे थे. वह भाई नहीं थे लेकिन भाई जैसे थे. वह सीनियर थे लेकिन हमसफ़र जैसे थे.
जब मैं बम्बई में 1960-62 के दरमियान ग्वालियर से आया, उस समय की बम्बई आज की तरह खाली-खाली नहीं थी.
हिंदी, उर्दू साहित्यकारों से भरी-पूरी थी.
धर्मवीर भारती थे, राजेंद्र सिंह बेदी थे, इस्मत चुगताई थीं, अली सरदार जाफरी थे, साहिर लुधियानवी थे और इन सबके साथ और भी बहुत से थे.
वह समय मेरे स्ट्रगल का था. जब ग्वालियर में घर से बेघर हो गया तो कई स्थानों से भटकता हुआ, बम्बई पहुँचा. बम्बई में मुझे घर से ज़्यादा रोटी की ज़रूरत थी, जिन हाथों में रोटी नज़र आती थी मैं उधर मुड़ जाता था.
ये हाथ कभी हिंदी-उर्दू ब्लिट्ज में दिखाई देते थे, कभी टाइम्स ऑफ इंडिया में तो कभी धर्मयुग में संपादकीय केबिन में होते थे तो कभी उसी इमारत में सारिका के कार्यालय में चलते-फिरते थे.
उन दिनों सुरेंद्र प्रकाश भी दिल्ली से जमुना नदी का ख़त समुंदर के नाम लेकर इधर-उधर भटक रहे थे. वह उर्दू के कथाकार थे और मेरी तरह बेकार थे.
उनकी और मेरी बेकारी अक्सर एक जैसे ठिकानों में आती जाती थी. बार-बार की मुलाक़ातें कभी-कभी साथ-साथ चलकर भी रोटी की तलाश करती थीं. रोटी की इस मुसलसल तलाश ने सारे कुर्सीधारी साहित्यकारों को बदमाश बना दिया था.
हमें लगता था उनका रहन-सहन, चाल-चलन सब धन-फन है. सारे स्थापित साहित्यकार हमारी तीखी आलोचना के शिकार थे. इस आलोचना में नई-नई गालियाँ भी शामिल होती थीं.
एक बार हम दोनों वीटी (जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल है) स्टेशन से बाहर निकलकर टाइम्स की बिल्डिंग की तरफ जा रहे थे. हम दोनों डिवाइडर पर खड़े ट्रैफिक के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक पूरी गाली को बीच में रोकते हुए सुरेंद्र प्रकाश ने मेरी तरफ मुड़ते हुए कहा, "देख हम जहाँ जा रहे हैं वहाँ के हाथों में रोटियाँ हैं और हमारे मुँह में गालियाँ हैं. कहीं ऐसा न हो, मुँह की गालियाँ चेहरो पर नज़र आने लगें और जिन्हें देखकर क़रीब आती रोटियाँ दूर जाने लगें."
बात माकूल थी. सुरेंद्र के पास कहानी थी और मेरे बैग में कुछ कविताएँ और एक अरबी कहानी का अनुवाद था. टाइम्स ऑफ इंडिया की इमारत की तीसरी मंजिल में हमारी दो ही मंजिलें थी. धर्मयुग में भारती जी की केबिन और सारिका के दफ़्तर में कमलेश्वर का कमरा.
समय लंच का था. भारतीजी अपनी केबिन में ही अपना लंच मंगवाते थे. लंच के बाद थोड़ा आराम फ़रमाते थे उसके बाद अपने काम में लग जाते थे. भारती निर्धारित समय पर ही मिल पाते थे. हम पाँच-सात मिनट लेट हो गए थे. इसलिए दूसरी ओर मुड़ गए.
बड़ा आदमी
कमलेश्वर अपने कमरे से निकल ही रहे थे. वो भारतीजी की तरह वह लंच अकेले नहीं खाते थे. हँसते-हँसाते, ठहाके लगाते सबके संग इसका आनंद उठाते थे. इत्तफाक़ से उनके बाहर निकलने और हमारे उनके सामने आने का समय एक ही था. हमें देखते ही 'आओ निदा भाई-सुरेंद्र भाई' के जुमलों से पहले हमारा स्वागत किया और फिर कंधों पर हाथ रख दिया (छोटा हो या बड़ा वह सबको ‘भाई’ ही कहते थे). और कहा, "आओ कैंटिन चलते हैं वहीं बैठकर थोड़ा खाएँगे थोड़ा बतियाएंगे"
कमलेश्वर के शब्दों की अदायगी में उनकी आवाज़ के साथ उनकी आँखे भी शरीक रहती थीं. इस शिरकत में होठों से बड़ी उनकी विशेष मुस्कान की आदत भी रहती थी. जो किसी भी अजनबियत को मानूसियत में बदल देती थी. उनके इसी अंदाज़ में इनकी लोकप्रियता का राज़ भी पोशीदा था.
कैंटीन में उस समय कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया, सुदीप के साथ और भी कई लोग खा-पी रहे थे.
वहाँ पहुँच कर देखा कि सिर्फ हम ही नहीं सब उनके भाई थे. सब दोस्त थे और सारे जूनियर उनके हमसफ़र थे...कमलेश्वर बड़े परिवार के आदमी थे.
जिगर मुरादाबादी ने एक जगह लिखा है, "अच्छा शायर बनने के लिए अच्छा आदमी होना ज़रूरी है."
इसी ज़रूरत को उन्होंने अपने आचरण में ढाल लिया था. जिगर साहब की यही कसौटी कमलेश्वर जी की पहचान कराती है.
कमलेश्वर कोई सूफी संत तो नहीं थे लेकिन इलाहाबाद से बम्बई की लंबी यात्रा के उतार-चढ़ाव ने उन्हें चेहरों से दिलों को पढ़ने की दृष्टि ज़रूर दी थी.
उन्हें अपनी भूख के साथ मेरी और सुरेंद्र प्रकाश की खाली पेटों की भी ख़बर थी. इसलिए उन्होंने एक साथ तीन भोजन मंगवाए एक अपने लिए और दो हमारे लिए. और फिर हमारी औपचारिकता को सहज करने के लिए मुस्कुराते हुए पूछा, "निदा भाई कुछ सारिका के लिए भी लाए हो या खाली हाथ आए हो?"
मैंने फ़ौरन बैग से एक अरबी कहानी का अनुवाद निकाल कर उन्हें दिया. कमलेश्वर खाना छोड़कर कहानी को पढ़ने लगे और एक ही पैराग्राफ देखकर उसे स्वीकृत किया और हाथ का निवाला मुँह में रखते हुए बोले निदा भाई तुमने कमाल कर दिया. हम तो समझते थे अरब में सिर्फ नमाज़ ही पढ़ी जाती है वहाँ तो कहानी भी लिखी जाती है और फिर मुस्कुराते हुए सुरेंद्र की थाली से अचार को अंगुली से छूते हुए कहा, "सुरेंद्र भाई, निदा ने तो अपना चमत्कार दिखा दिया अब आप बताएँ आप की झोली में मीर के बहत्तर नश्तरों में से कौन सा नश्तर छुपा है?"
फ्री के भोजन के साथ सुरेंद्र की कहानी भी मिलने वाले चैक में परिवर्तित हो गई. यह थे कमलेश्वर और उनका जादू.
वह जैसा लिखते थे वैसे दिखते भी थे...मैंने बहुत बाद में कबीर के छंद में एक ग़ज़ल लिखी थी उसके दो शेरों में कमलेश्वर की जैसी ही यादें छिपी हैं,
यह दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिखारी क्यावह हर दीदार में ज़रदार है, गोटा किनारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसकोजो चोटी और दाढ़ी तक रहे, वह दीनदारी क्या
वह जब सारिका से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए तो उनसे मुलाक़ातों की संख्या बढ़ने लगी.
इंडस्ट्री में उन्होंने इश्क भी किया. शराब भी पी. महफिलों में शिरकत भी की. लेकिन उनके मिलने जुलने के तरीक़ों और ठहाके लगाने के सलीकों में कोई फर्क नहीं महसूस हुआ.
न उनका लिबास बदला और न इंसानियत पर उनका वह विश्वास बदला जो 'कितने पाकिस्तान' के एहसास में शामिल है.
इंसानियत से पहचान
कमलेश्वर ज़िंदगी से भरे पूरे लेखक थे. ज़िंदगी की उनकी परिभाषा ने आदमी को उसकी इंसानियत से जाना, किसी को उसकी भाषा, क्षेत्र या धर्म से नहीं पहचाना.
कमलेश्वर का मिज़ाज कभी नहीं बदला
उनकी खुशियाँ भले ही सीमित हों लेकिन उनके दुख दूर-दूर तक फैले हुए समाज की भाँति असीमित थे. वह बड़े दुख के बड़े लेखक थे. वह बम्बई, दिल्ली या और कहीं, जहाँ भी मिले उसी रूप में मिले जैसे वह सारिका के दफ़्तर के कैंटीन में मिले थे.
उनसे आख़िरी मुलाक़ात दिल्ली में किसी गोष्ठी में हुई थी. मुझे तब शेर सुनाने के लिए बुलाया गया तो हाथ में रंगीन ग्लास लिए, एक जानी-पहचानी आवाज़ ने मुझसे एक नज़्म सुनाने का अनुरोध किया, आवाज़ कमलेश्वरजी की थी और मेरी नज़्म उस समय की थी जब हिंदो-पाक में युद्ध हो रहा था और मेरी माँ कराची में बीमार थीं. मुझे वीज़ा नहीं मिला और मैंने नज़्म कही थी...
कराची एक माँ हैबम्बई बिछुड़ा हुआ बेटायह रिश्ता प्यार व पाकीज़ा रिश्ता हैजिसे अब तक न कोई तोड़ पाया हैन कोई तोड़ सकता हैगलत है रेडियो, झूठी है सब अख़बार की ख़बरेंन मेरी माँ कभी तलवार खाने रन में आई हैन मैंने अपनी माँ के सामने बंदूक उठाई हैयह कैसा शोरो हंगामा हैयह किस की लड़ाई है
कमलेश्वर अब नहीं हैं. लेकिन जब भी कभी किसी महफ़िल में कोई इस नज़्म को सुनाने को कहता है तो मेरे सामने कमलेश्वर का चेहरा आ जाता है, मुस्कुराता हुआ....

Tuesday, January 22, 2008

गिरती मानसिकता .

कहते हैं शेअर मार्केट के बाहर लगी बुल की मूर्ती गिरा दी गई होती तो निवेशकों को यह दिन न देखना पड़ता .सैकड़ों अंकों की गिरावट भला किसी ऐसे वैसे के बस की बात है ये काम सिर्फ एक बैल ही कर सकता है ,अगर इस बैल को गिरा दिया गया होता तो शेयर बाज़ार ऊँचाइयों को चूने के साथ साथ छोटे निवेशकों का भी भला कर देता.मे तो कहता हूँ बैल के साथ साथ चौराहों पर लगी नेताओं की मूर्तियों को भी गिरा देना चाहिऐ शायद देश के ग़रीब लोगों का भला हो जाए.

Monday, January 21, 2008

मेरी नज़र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर na ho
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब है चाँदनी न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

Wednesday, January 9, 2008

पाक हुक्मरानों का शजरा

मोहम्मद अली जिन्ना– पेशे से वकील। 1905 में राजनीति में आए। 1940 में पाकिसतान की मांग की और 1947 में अलग देश बनाने में कामयाब रहे। पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल। धार्मिक आधार पर देश बनाने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के समर्थक। आर्थिक एवं सैन्य सहायता के लिए अमेरिका की मुंहजोई। उर्दू को पूरे पाकिसतान की अधिकारिक भाषा बनाने की बात कही जिसके विरोध में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लाभाषियों का जबर्दस्त आंदोलन। 11 सितंबर 1948 को तपेदिक एवं फेफड़े के कैंसर से मृत्यू। पाकिस्तान द्वारा ‘कायदे आजम’ यानी महान नेता का खिताब।लियाकत अली खां– पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री। जिन्ना के प्रमुख सहयोगी। इनके दौर में धार्मिक अल्पसंख्यकों का मुद्दा गरमाया। भारत के साथ बेहतर संबंध के लिए नेहरू के साथ 1950 में समझौता किया जिसे नेहरू–लियाकत पैक्ट कहा गया। पाकिस्तान की विदेश नीति के पश्चिमीकरण के समर्थक। जनवरी 1951 में अयूब खां को पहला कमांडर इन चीफ बनाया। 16 अक्टूबर 1951 को रावलपिंडी के एक जन समारोह में गोली मार कर हत्या।इस्कंदर अली मिर्जा–6 अक्टूबर 1955 को गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान के गठन के समय रक्षा सचिव थे। इनके शासनकाल में 23 मार्च 1956 को पाकिस्तान का संविधान बना और ये पहले राष्ट्रपति बने। पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र घोषित किया गया। 7 अक्टूबर 1958 को धार्मिक कानून लागू करवाया और कानून प्रशासक के तौर पर अयूब खान को बहाल किया। मात्र 20 दिनों बाद ही अयूब खान ने बगैर किसी खून खराबे के तख्तापलट किया। मोहम्मद अयूब खां– ‘जम्हूरियत बहाल करना हमारा अंतिम मकसद है’, 1958 में तख्तापलट के बाद जनरल अयूब खां की यही टिप्पणी थी। वे सत्ता पलट द्वारा बागडोर संभालने वाले पहले पाकिस्तानी जनरल थे। सोवियत संघ के खिलाफ खुलेआम अमेरिका से हाथ मिलाया। इनके दौर में पाक ने दो सैनिक गठबंधन सैंटो और सीटो की सदस्यता हासिल की। तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से विदेश नीति के संबंध में अनबन। बाद में विपक्ष के दवाब में सरकार की बागडोर कमांडर इन चीफ याह्या खां को सौंपनी पड़ी।याह्या खां– पाकिस्तान के तीसरे राष्ट्रपति। 1970 के अंत में चुनाव का ऐलान किया। चुनाव में शेख मुजीर्बुर रहमान की जीत के बावजूद उन्हें गद्दी नहीं सौंपी। इनके कार्यकाल में पाकिस्तानी सेना के पूर्वी बंगाल रेजीमेंट प्रमुख मेजर जियाउर रहमान ने 27 मार्च 1971 को बांग्लादेश के नाम से नए देश के गठन की घोषणा की। पाकिस्तानी सेना और बांग्लादेश की मुक्तवाहिनी के बीच युद्ध। भारत की मदद से मुक्तवाहिनी की जीत। हार के कारण पाक में खलनायक घोषित हुए। 20 दिसंबर 1971 को जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता सौंपी।जुल्फिकार अली भुट्टो– पेशे से शिक्षक व वकील रहे। राजनीति में आने के बाद अयूब खां के दौर में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने। बाद में अयूब के कट्टर आलोचक। अयूब खां से नाता तोड़कर अलग पार्टी बनाई–पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी। इस पार्टी के अभियानों एवं विपक्ष के दवाब में ही अयूब खां को इस्तीफा देना पड़ा। 20 दिसंबर 1971 से 13 अगस्त 1973 तक राष्ट्रपति रहे। पाकिस्तान के बदले स्वरूप में 1973 में फिर चुनाव हुए। इसमें पीपीपी को भारी बहुमत। भुट्टो प्रधानमंत्री बने। पीपीपी द्वारा वोटों की धांधली को लेकर दंगे भड़के। जनरल जिया ने बगावत की और 1977 में तख्तापलट किया। 1979 में अपने एक विरोधी की हत्या के आरोप में फांसी।मोहम्मद जिया उल हक– 5 जुलाई 1977 को मार्शल लॉ प्रशासक के तौर पर सत्ता संभाली। 1978 में खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया। पाक शासकों में सबसे अधिक महत्वाकांक्षी। राष्ट्रपति रहते हुए भी सेना की वर्दी नहीं उतारी। अपने तानाशाही रवैये के कारण सबसे बदनाम रहे। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका के प्रमुख सहयोगी। अफगानिस्तान में सोवियत दखल के बाद अमेरिका से काफी सैन्य सहायता हासिल की। 1985 में मार्शल लॉ और राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगाया। 17 अगस्त 1988 को अमेरिकी राजदूत और फौज के आला अफसरों के साथ रहस्यमय वायु दुर्घटना में मारे गए। बेनजीर भुट्टो– 1988 से 1990 और फिर 1993 से 1996 तक पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं। दोनों ही बार भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण पद से हटना पड़ा। जिया के दौर में 5 साल जेल में बिताने पड़े। जिया की मृत्यु के बाद हुए आम चुनावों में बहुमत हासिल कर पहली बार प्रधानमंत्री बनीं थीं। 1999 में पुन: देश छोड़ना पड़ा। आठ साल के निर्वासन के बाद 18 अक्टूबर 2007 को वापस पाकिस्तान आयीं। अमेरिकी नीति के समर्थक होने के कारण कट्टरपंथियों के खास निशाने पर। आने के साथ आत्मघाती हमले का सामना। दूसरे हमले में 27 दिसंबर को रावलपिंडी के लियाकत बाग मे मृत्यु। नवाज शरीफ– भ्रष्टाचार के आरोप में भुट्टो सरकार की बर्खास्तगी के बाद 1 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री बने। इस्लामी शरीयत कानून को लागू करवाया। वित्तीय अनियमितता के आरोप में 18 जुलाई 1993 को इन्हें भी सत्ता से हाथ धोना पड़ा। 1997 के आम चुनाव में इनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग को भारी बहुमत हासिल हुआ। 17 फरवरी 1997 को पुन: प्रधानमंत्री बने। 12 अक्टूबर 1999 को जनरल मुशर्रफ ने तख्तापलट किया। बाद में विमान अपहरण और आतंकवाद के आरोप में उम्र कैद की सजा। फिर माफी मिली और सऊदी अरब निर्वासित किया गया। सात साल बाद सितंबर 2007 को देश लौटे। फिलहाल फरवरी 2008 को होने वाले आम चुनाव की तैयारी में जुटे हैं।परवेज मुशर्रफ– 12 अक्टूबर 1999 को नवाज शरीफ सरकार का तख्तापलट कर सत्ता में आए। राष्ट्रपति बनने वाले चौथे सेना प्रमुख। करगिल घुसपैठ इनके दिमाग की ही उपज। राष्ट्रपति का अपना कार्यकाल बढ़ाने के लिए अप्रैल 2002 में जनमत संग्रह। कार्यकाल बढ़ाने की स्वीकृति किंतु विपक्षी दलों ने धांधली का आरोप लगाया। मार्च 2007 में पद के दुरूपयोग के आरोप में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को निर्वासित किया। अक्टूबर 2007 में इकतरफा चुनाव में निर्वासित राष्ट्रपति का तमगा। 8 जनवरी 2008 को आम चुनाव की घोषणा की किंतु बेनजीर की हत्या के बाद चुनाव दो महीने टला।

फिक्र कि सोंच

सोंचो सोंचने से फिक्र बढ़ती है और जब फिक्र बढ़ती है तो रास्ते हमवार होते जाते हैं .इतने दिनों मे मैंने यही सीखा है कि हममे से हर एक का वजूद किसी खास काम को अंजाम देने के लिए है अब ये हमे खुद ही तय करना है कि उस काम को पूरा करने के लिए कौन सा रास्ता इख्तेयार किया जाए .ये रास्ता तय करना ही सबसे मुश्किल और समझदारी का काम है .इसलिए ऐ मेरे दोस्त तमाम दुसरे काम छोड़ कर तुम सिर्फ अपने मकसद को पूरा करने मे जुट जाओ क्यूंकि वक़्त बहोत कम है और काम बहोत ज्यादा .

Friday, January 4, 2008

बेनजीर की हत्या किसका फायेदा


२७ तारीख से लेकर आज तक मई सोंचता चला आ रहा हूँ कि बेनजीर कि हत्या से किसका फयेदा हो सकता है । बहोत सोंचने पर कई सवाल सामने आये पहला ये कि अगर मुशर्रफ़ ने बेनजीर कि हत्या करवाई तो इसमे मुश का क्या फयेदा था तो समझ मे यह आया कि वर्दी छोड़ने, लोकतंत्र कि बहाली के लिए चुनाव कि घोषणा करने और बेनजीर कि वतन वापसी के बाद मुश को यह एहसास हो गया था कि भुट्टो कि पार्टी बहुमत से आ जायेगी और फिर उनके ऊपर लगाम कसने कि कोशिश की जाएगी आपनी कुर्सी और ताक़त को मुश किसी भी हाल में खोना नही चाहते .नवाज़ शरीफ तो पहले ही अयोग्य घोषित किये जा चुके है इसलिए उनसे कोई खतरा नही था ,उनके लिए सबसे बड़ा खतरा अगर कोई था तो वह बेनजीर ही थी ,क्योकि वह मुश कि शर्तो को मानने के लिए तैयार नही थी। अवाम का भरोसा तो वह पहले ही खो चुके थे अब ताक़त भी जाने वाली थी .इधर बेनजीर आपनी जान की परवाह न करते हुए ज़ोर-शोर से चुनाओ प्रचार में जुट गई थी .मुश के लिए खतरा बढता जा रहा था .अब एक ही रास्ता था कि बेनजीर को ख़त्म कर दिया जाये ,तशाद्दुद बढ़ने पर दोबारा ऎमर्जेंसी लगा दी जाये और अपनी ताक़त को बरक़रार रखा जाये.