समय हो गया

Sunday, January 27, 2008

बड़े लोगों की बात


कमलेश्वरजी मेरे दोस्त नहीं थे, लेकिन दोस्त जैसे थे. वह भाई नहीं थे लेकिन भाई जैसे थे. वह सीनियर थे लेकिन हमसफ़र जैसे थे.
जब मैं बम्बई में 1960-62 के दरमियान ग्वालियर से आया, उस समय की बम्बई आज की तरह खाली-खाली नहीं थी.
हिंदी, उर्दू साहित्यकारों से भरी-पूरी थी.
धर्मवीर भारती थे, राजेंद्र सिंह बेदी थे, इस्मत चुगताई थीं, अली सरदार जाफरी थे, साहिर लुधियानवी थे और इन सबके साथ और भी बहुत से थे.
वह समय मेरे स्ट्रगल का था. जब ग्वालियर में घर से बेघर हो गया तो कई स्थानों से भटकता हुआ, बम्बई पहुँचा. बम्बई में मुझे घर से ज़्यादा रोटी की ज़रूरत थी, जिन हाथों में रोटी नज़र आती थी मैं उधर मुड़ जाता था.
ये हाथ कभी हिंदी-उर्दू ब्लिट्ज में दिखाई देते थे, कभी टाइम्स ऑफ इंडिया में तो कभी धर्मयुग में संपादकीय केबिन में होते थे तो कभी उसी इमारत में सारिका के कार्यालय में चलते-फिरते थे.
उन दिनों सुरेंद्र प्रकाश भी दिल्ली से जमुना नदी का ख़त समुंदर के नाम लेकर इधर-उधर भटक रहे थे. वह उर्दू के कथाकार थे और मेरी तरह बेकार थे.
उनकी और मेरी बेकारी अक्सर एक जैसे ठिकानों में आती जाती थी. बार-बार की मुलाक़ातें कभी-कभी साथ-साथ चलकर भी रोटी की तलाश करती थीं. रोटी की इस मुसलसल तलाश ने सारे कुर्सीधारी साहित्यकारों को बदमाश बना दिया था.
हमें लगता था उनका रहन-सहन, चाल-चलन सब धन-फन है. सारे स्थापित साहित्यकार हमारी तीखी आलोचना के शिकार थे. इस आलोचना में नई-नई गालियाँ भी शामिल होती थीं.
एक बार हम दोनों वीटी (जो अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल है) स्टेशन से बाहर निकलकर टाइम्स की बिल्डिंग की तरफ जा रहे थे. हम दोनों डिवाइडर पर खड़े ट्रैफिक के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक एक पूरी गाली को बीच में रोकते हुए सुरेंद्र प्रकाश ने मेरी तरफ मुड़ते हुए कहा, "देख हम जहाँ जा रहे हैं वहाँ के हाथों में रोटियाँ हैं और हमारे मुँह में गालियाँ हैं. कहीं ऐसा न हो, मुँह की गालियाँ चेहरो पर नज़र आने लगें और जिन्हें देखकर क़रीब आती रोटियाँ दूर जाने लगें."
बात माकूल थी. सुरेंद्र के पास कहानी थी और मेरे बैग में कुछ कविताएँ और एक अरबी कहानी का अनुवाद था. टाइम्स ऑफ इंडिया की इमारत की तीसरी मंजिल में हमारी दो ही मंजिलें थी. धर्मयुग में भारती जी की केबिन और सारिका के दफ़्तर में कमलेश्वर का कमरा.
समय लंच का था. भारतीजी अपनी केबिन में ही अपना लंच मंगवाते थे. लंच के बाद थोड़ा आराम फ़रमाते थे उसके बाद अपने काम में लग जाते थे. भारती निर्धारित समय पर ही मिल पाते थे. हम पाँच-सात मिनट लेट हो गए थे. इसलिए दूसरी ओर मुड़ गए.
बड़ा आदमी
कमलेश्वर अपने कमरे से निकल ही रहे थे. वो भारतीजी की तरह वह लंच अकेले नहीं खाते थे. हँसते-हँसाते, ठहाके लगाते सबके संग इसका आनंद उठाते थे. इत्तफाक़ से उनके बाहर निकलने और हमारे उनके सामने आने का समय एक ही था. हमें देखते ही 'आओ निदा भाई-सुरेंद्र भाई' के जुमलों से पहले हमारा स्वागत किया और फिर कंधों पर हाथ रख दिया (छोटा हो या बड़ा वह सबको ‘भाई’ ही कहते थे). और कहा, "आओ कैंटिन चलते हैं वहीं बैठकर थोड़ा खाएँगे थोड़ा बतियाएंगे"
कमलेश्वर के शब्दों की अदायगी में उनकी आवाज़ के साथ उनकी आँखे भी शरीक रहती थीं. इस शिरकत में होठों से बड़ी उनकी विशेष मुस्कान की आदत भी रहती थी. जो किसी भी अजनबियत को मानूसियत में बदल देती थी. उनके इसी अंदाज़ में इनकी लोकप्रियता का राज़ भी पोशीदा था.
कैंटीन में उस समय कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया, सुदीप के साथ और भी कई लोग खा-पी रहे थे.
वहाँ पहुँच कर देखा कि सिर्फ हम ही नहीं सब उनके भाई थे. सब दोस्त थे और सारे जूनियर उनके हमसफ़र थे...कमलेश्वर बड़े परिवार के आदमी थे.
जिगर मुरादाबादी ने एक जगह लिखा है, "अच्छा शायर बनने के लिए अच्छा आदमी होना ज़रूरी है."
इसी ज़रूरत को उन्होंने अपने आचरण में ढाल लिया था. जिगर साहब की यही कसौटी कमलेश्वर जी की पहचान कराती है.
कमलेश्वर कोई सूफी संत तो नहीं थे लेकिन इलाहाबाद से बम्बई की लंबी यात्रा के उतार-चढ़ाव ने उन्हें चेहरों से दिलों को पढ़ने की दृष्टि ज़रूर दी थी.
उन्हें अपनी भूख के साथ मेरी और सुरेंद्र प्रकाश की खाली पेटों की भी ख़बर थी. इसलिए उन्होंने एक साथ तीन भोजन मंगवाए एक अपने लिए और दो हमारे लिए. और फिर हमारी औपचारिकता को सहज करने के लिए मुस्कुराते हुए पूछा, "निदा भाई कुछ सारिका के लिए भी लाए हो या खाली हाथ आए हो?"
मैंने फ़ौरन बैग से एक अरबी कहानी का अनुवाद निकाल कर उन्हें दिया. कमलेश्वर खाना छोड़कर कहानी को पढ़ने लगे और एक ही पैराग्राफ देखकर उसे स्वीकृत किया और हाथ का निवाला मुँह में रखते हुए बोले निदा भाई तुमने कमाल कर दिया. हम तो समझते थे अरब में सिर्फ नमाज़ ही पढ़ी जाती है वहाँ तो कहानी भी लिखी जाती है और फिर मुस्कुराते हुए सुरेंद्र की थाली से अचार को अंगुली से छूते हुए कहा, "सुरेंद्र भाई, निदा ने तो अपना चमत्कार दिखा दिया अब आप बताएँ आप की झोली में मीर के बहत्तर नश्तरों में से कौन सा नश्तर छुपा है?"
फ्री के भोजन के साथ सुरेंद्र की कहानी भी मिलने वाले चैक में परिवर्तित हो गई. यह थे कमलेश्वर और उनका जादू.
वह जैसा लिखते थे वैसे दिखते भी थे...मैंने बहुत बाद में कबीर के छंद में एक ग़ज़ल लिखी थी उसके दो शेरों में कमलेश्वर की जैसी ही यादें छिपी हैं,
यह दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिखारी क्यावह हर दीदार में ज़रदार है, गोटा किनारी क्या
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसकोजो चोटी और दाढ़ी तक रहे, वह दीनदारी क्या
वह जब सारिका से फ़िल्म इंडस्ट्री में आए तो उनसे मुलाक़ातों की संख्या बढ़ने लगी.
इंडस्ट्री में उन्होंने इश्क भी किया. शराब भी पी. महफिलों में शिरकत भी की. लेकिन उनके मिलने जुलने के तरीक़ों और ठहाके लगाने के सलीकों में कोई फर्क नहीं महसूस हुआ.
न उनका लिबास बदला और न इंसानियत पर उनका वह विश्वास बदला जो 'कितने पाकिस्तान' के एहसास में शामिल है.
इंसानियत से पहचान
कमलेश्वर ज़िंदगी से भरे पूरे लेखक थे. ज़िंदगी की उनकी परिभाषा ने आदमी को उसकी इंसानियत से जाना, किसी को उसकी भाषा, क्षेत्र या धर्म से नहीं पहचाना.
कमलेश्वर का मिज़ाज कभी नहीं बदला
उनकी खुशियाँ भले ही सीमित हों लेकिन उनके दुख दूर-दूर तक फैले हुए समाज की भाँति असीमित थे. वह बड़े दुख के बड़े लेखक थे. वह बम्बई, दिल्ली या और कहीं, जहाँ भी मिले उसी रूप में मिले जैसे वह सारिका के दफ़्तर के कैंटीन में मिले थे.
उनसे आख़िरी मुलाक़ात दिल्ली में किसी गोष्ठी में हुई थी. मुझे तब शेर सुनाने के लिए बुलाया गया तो हाथ में रंगीन ग्लास लिए, एक जानी-पहचानी आवाज़ ने मुझसे एक नज़्म सुनाने का अनुरोध किया, आवाज़ कमलेश्वरजी की थी और मेरी नज़्म उस समय की थी जब हिंदो-पाक में युद्ध हो रहा था और मेरी माँ कराची में बीमार थीं. मुझे वीज़ा नहीं मिला और मैंने नज़्म कही थी...
कराची एक माँ हैबम्बई बिछुड़ा हुआ बेटायह रिश्ता प्यार व पाकीज़ा रिश्ता हैजिसे अब तक न कोई तोड़ पाया हैन कोई तोड़ सकता हैगलत है रेडियो, झूठी है सब अख़बार की ख़बरेंन मेरी माँ कभी तलवार खाने रन में आई हैन मैंने अपनी माँ के सामने बंदूक उठाई हैयह कैसा शोरो हंगामा हैयह किस की लड़ाई है
कमलेश्वर अब नहीं हैं. लेकिन जब भी कभी किसी महफ़िल में कोई इस नज़्म को सुनाने को कहता है तो मेरे सामने कमलेश्वर का चेहरा आ जाता है, मुस्कुराता हुआ....

Tuesday, January 22, 2008

गिरती मानसिकता .

कहते हैं शेअर मार्केट के बाहर लगी बुल की मूर्ती गिरा दी गई होती तो निवेशकों को यह दिन न देखना पड़ता .सैकड़ों अंकों की गिरावट भला किसी ऐसे वैसे के बस की बात है ये काम सिर्फ एक बैल ही कर सकता है ,अगर इस बैल को गिरा दिया गया होता तो शेयर बाज़ार ऊँचाइयों को चूने के साथ साथ छोटे निवेशकों का भी भला कर देता.मे तो कहता हूँ बैल के साथ साथ चौराहों पर लगी नेताओं की मूर्तियों को भी गिरा देना चाहिऐ शायद देश के ग़रीब लोगों का भला हो जाए.

Monday, January 21, 2008

मेरी नज़र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर na ho
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब है चाँदनी न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

Wednesday, January 9, 2008

पाक हुक्मरानों का शजरा

मोहम्मद अली जिन्ना– पेशे से वकील। 1905 में राजनीति में आए। 1940 में पाकिसतान की मांग की और 1947 में अलग देश बनाने में कामयाब रहे। पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल। धार्मिक आधार पर देश बनाने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के समर्थक। आर्थिक एवं सैन्य सहायता के लिए अमेरिका की मुंहजोई। उर्दू को पूरे पाकिसतान की अधिकारिक भाषा बनाने की बात कही जिसके विरोध में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लाभाषियों का जबर्दस्त आंदोलन। 11 सितंबर 1948 को तपेदिक एवं फेफड़े के कैंसर से मृत्यू। पाकिस्तान द्वारा ‘कायदे आजम’ यानी महान नेता का खिताब।लियाकत अली खां– पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री। जिन्ना के प्रमुख सहयोगी। इनके दौर में धार्मिक अल्पसंख्यकों का मुद्दा गरमाया। भारत के साथ बेहतर संबंध के लिए नेहरू के साथ 1950 में समझौता किया जिसे नेहरू–लियाकत पैक्ट कहा गया। पाकिस्तान की विदेश नीति के पश्चिमीकरण के समर्थक। जनवरी 1951 में अयूब खां को पहला कमांडर इन चीफ बनाया। 16 अक्टूबर 1951 को रावलपिंडी के एक जन समारोह में गोली मार कर हत्या।इस्कंदर अली मिर्जा–6 अक्टूबर 1955 को गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान के गठन के समय रक्षा सचिव थे। इनके शासनकाल में 23 मार्च 1956 को पाकिस्तान का संविधान बना और ये पहले राष्ट्रपति बने। पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र घोषित किया गया। 7 अक्टूबर 1958 को धार्मिक कानून लागू करवाया और कानून प्रशासक के तौर पर अयूब खान को बहाल किया। मात्र 20 दिनों बाद ही अयूब खान ने बगैर किसी खून खराबे के तख्तापलट किया। मोहम्मद अयूब खां– ‘जम्हूरियत बहाल करना हमारा अंतिम मकसद है’, 1958 में तख्तापलट के बाद जनरल अयूब खां की यही टिप्पणी थी। वे सत्ता पलट द्वारा बागडोर संभालने वाले पहले पाकिस्तानी जनरल थे। सोवियत संघ के खिलाफ खुलेआम अमेरिका से हाथ मिलाया। इनके दौर में पाक ने दो सैनिक गठबंधन सैंटो और सीटो की सदस्यता हासिल की। तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से विदेश नीति के संबंध में अनबन। बाद में विपक्ष के दवाब में सरकार की बागडोर कमांडर इन चीफ याह्या खां को सौंपनी पड़ी।याह्या खां– पाकिस्तान के तीसरे राष्ट्रपति। 1970 के अंत में चुनाव का ऐलान किया। चुनाव में शेख मुजीर्बुर रहमान की जीत के बावजूद उन्हें गद्दी नहीं सौंपी। इनके कार्यकाल में पाकिस्तानी सेना के पूर्वी बंगाल रेजीमेंट प्रमुख मेजर जियाउर रहमान ने 27 मार्च 1971 को बांग्लादेश के नाम से नए देश के गठन की घोषणा की। पाकिस्तानी सेना और बांग्लादेश की मुक्तवाहिनी के बीच युद्ध। भारत की मदद से मुक्तवाहिनी की जीत। हार के कारण पाक में खलनायक घोषित हुए। 20 दिसंबर 1971 को जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता सौंपी।जुल्फिकार अली भुट्टो– पेशे से शिक्षक व वकील रहे। राजनीति में आने के बाद अयूब खां के दौर में पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने। बाद में अयूब के कट्टर आलोचक। अयूब खां से नाता तोड़कर अलग पार्टी बनाई–पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी। इस पार्टी के अभियानों एवं विपक्ष के दवाब में ही अयूब खां को इस्तीफा देना पड़ा। 20 दिसंबर 1971 से 13 अगस्त 1973 तक राष्ट्रपति रहे। पाकिस्तान के बदले स्वरूप में 1973 में फिर चुनाव हुए। इसमें पीपीपी को भारी बहुमत। भुट्टो प्रधानमंत्री बने। पीपीपी द्वारा वोटों की धांधली को लेकर दंगे भड़के। जनरल जिया ने बगावत की और 1977 में तख्तापलट किया। 1979 में अपने एक विरोधी की हत्या के आरोप में फांसी।मोहम्मद जिया उल हक– 5 जुलाई 1977 को मार्शल लॉ प्रशासक के तौर पर सत्ता संभाली। 1978 में खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया। पाक शासकों में सबसे अधिक महत्वाकांक्षी। राष्ट्रपति रहते हुए भी सेना की वर्दी नहीं उतारी। अपने तानाशाही रवैये के कारण सबसे बदनाम रहे। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका के प्रमुख सहयोगी। अफगानिस्तान में सोवियत दखल के बाद अमेरिका से काफी सैन्य सहायता हासिल की। 1985 में मार्शल लॉ और राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगाया। 17 अगस्त 1988 को अमेरिकी राजदूत और फौज के आला अफसरों के साथ रहस्यमय वायु दुर्घटना में मारे गए। बेनजीर भुट्टो– 1988 से 1990 और फिर 1993 से 1996 तक पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं। दोनों ही बार भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण पद से हटना पड़ा। जिया के दौर में 5 साल जेल में बिताने पड़े। जिया की मृत्यु के बाद हुए आम चुनावों में बहुमत हासिल कर पहली बार प्रधानमंत्री बनीं थीं। 1999 में पुन: देश छोड़ना पड़ा। आठ साल के निर्वासन के बाद 18 अक्टूबर 2007 को वापस पाकिस्तान आयीं। अमेरिकी नीति के समर्थक होने के कारण कट्टरपंथियों के खास निशाने पर। आने के साथ आत्मघाती हमले का सामना। दूसरे हमले में 27 दिसंबर को रावलपिंडी के लियाकत बाग मे मृत्यु। नवाज शरीफ– भ्रष्टाचार के आरोप में भुट्टो सरकार की बर्खास्तगी के बाद 1 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री बने। इस्लामी शरीयत कानून को लागू करवाया। वित्तीय अनियमितता के आरोप में 18 जुलाई 1993 को इन्हें भी सत्ता से हाथ धोना पड़ा। 1997 के आम चुनाव में इनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग को भारी बहुमत हासिल हुआ। 17 फरवरी 1997 को पुन: प्रधानमंत्री बने। 12 अक्टूबर 1999 को जनरल मुशर्रफ ने तख्तापलट किया। बाद में विमान अपहरण और आतंकवाद के आरोप में उम्र कैद की सजा। फिर माफी मिली और सऊदी अरब निर्वासित किया गया। सात साल बाद सितंबर 2007 को देश लौटे। फिलहाल फरवरी 2008 को होने वाले आम चुनाव की तैयारी में जुटे हैं।परवेज मुशर्रफ– 12 अक्टूबर 1999 को नवाज शरीफ सरकार का तख्तापलट कर सत्ता में आए। राष्ट्रपति बनने वाले चौथे सेना प्रमुख। करगिल घुसपैठ इनके दिमाग की ही उपज। राष्ट्रपति का अपना कार्यकाल बढ़ाने के लिए अप्रैल 2002 में जनमत संग्रह। कार्यकाल बढ़ाने की स्वीकृति किंतु विपक्षी दलों ने धांधली का आरोप लगाया। मार्च 2007 में पद के दुरूपयोग के आरोप में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को निर्वासित किया। अक्टूबर 2007 में इकतरफा चुनाव में निर्वासित राष्ट्रपति का तमगा। 8 जनवरी 2008 को आम चुनाव की घोषणा की किंतु बेनजीर की हत्या के बाद चुनाव दो महीने टला।

फिक्र कि सोंच

सोंचो सोंचने से फिक्र बढ़ती है और जब फिक्र बढ़ती है तो रास्ते हमवार होते जाते हैं .इतने दिनों मे मैंने यही सीखा है कि हममे से हर एक का वजूद किसी खास काम को अंजाम देने के लिए है अब ये हमे खुद ही तय करना है कि उस काम को पूरा करने के लिए कौन सा रास्ता इख्तेयार किया जाए .ये रास्ता तय करना ही सबसे मुश्किल और समझदारी का काम है .इसलिए ऐ मेरे दोस्त तमाम दुसरे काम छोड़ कर तुम सिर्फ अपने मकसद को पूरा करने मे जुट जाओ क्यूंकि वक़्त बहोत कम है और काम बहोत ज्यादा .

Friday, January 4, 2008

बेनजीर की हत्या किसका फायेदा


२७ तारीख से लेकर आज तक मई सोंचता चला आ रहा हूँ कि बेनजीर कि हत्या से किसका फयेदा हो सकता है । बहोत सोंचने पर कई सवाल सामने आये पहला ये कि अगर मुशर्रफ़ ने बेनजीर कि हत्या करवाई तो इसमे मुश का क्या फयेदा था तो समझ मे यह आया कि वर्दी छोड़ने, लोकतंत्र कि बहाली के लिए चुनाव कि घोषणा करने और बेनजीर कि वतन वापसी के बाद मुश को यह एहसास हो गया था कि भुट्टो कि पार्टी बहुमत से आ जायेगी और फिर उनके ऊपर लगाम कसने कि कोशिश की जाएगी आपनी कुर्सी और ताक़त को मुश किसी भी हाल में खोना नही चाहते .नवाज़ शरीफ तो पहले ही अयोग्य घोषित किये जा चुके है इसलिए उनसे कोई खतरा नही था ,उनके लिए सबसे बड़ा खतरा अगर कोई था तो वह बेनजीर ही थी ,क्योकि वह मुश कि शर्तो को मानने के लिए तैयार नही थी। अवाम का भरोसा तो वह पहले ही खो चुके थे अब ताक़त भी जाने वाली थी .इधर बेनजीर आपनी जान की परवाह न करते हुए ज़ोर-शोर से चुनाओ प्रचार में जुट गई थी .मुश के लिए खतरा बढता जा रहा था .अब एक ही रास्ता था कि बेनजीर को ख़त्म कर दिया जाये ,तशाद्दुद बढ़ने पर दोबारा ऎमर्जेंसी लगा दी जाये और अपनी ताक़त को बरक़रार रखा जाये.